बोरे-बासी के दिन // सुशील भोले, संजय नगर, रायपुर
छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नदृष्टा डॉ. खूबचंद बघेल जी के एक मयारुक कविता के आज सुरता आवत हे-
बासी के गुण कहुँ कहाँ तक,
इसे न टालो हासी में.
गजब बिटामन भरे हुये हैं,
छत्तीसगढ़ के बासी में..
पहिली उंकर ए कविता ल हमन अपन लइकई बुद्धि म परंपरा के संरक्षण-संवर्धन खातिर लिखे गे मयारुक रचना होही समझत रेहेन. वइसे खाए बर पहिली घलो बासी ल ससन भर आवन अउ आजो खाथन, फेर वोकर पौष्टिक महत्व ल समझत नइ राहन. हाँ, डोकरी दाई अतका जरूर काहय- बासी के पसिया ल घलो पीना चाही, एकर ले चूंदी बने जल्दी-जल्दी बाढ़थे अउ घन होथे. फेर अब जब ले वैज्ञानिक मन बासी उप्पर शोध कारज करिन हें अउ बताइन हें, के बासी खाए ले ब्लडप्रेशर ह कंट्रोल म रहिथे, गरमी के दिन म बासी खाए ले लू घलो नइ लगय, एकर ले हाइपर टेंशन घलो कंट्रोल म रहिथे. गरमी के दिन म बुता करइया मन के देंह-पांव के तापमान ल घलो बने-बने राखथे. संग म पाचुक होए के सेती हमर पाचन तंत्र ल घलो बरोबर बनाए रखथे. जब ले ए वैज्ञानिक शोध ल जानेन तबले अपन पुरखा मन के वैज्ञानिक सोच अउ अपन परंपरा ऊपर गरब होए लागिस.
आज अचानक ए सब बात मनके सुरता एकर सेती आवत हे, काबर ते हमर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ह 1 मई 2022 ले श्रमिक दिवस के अवसर म श्रमिक मनके श्रम ल सम्मान दे खातिर ए दिन जम्मो छत्तीसगढ़िया मनला बोरे-बासी खाए खातिर आव्हान करे हे. बोरे-बासी के महत्व ल जन-जन म बगराए अउ एला अपन पारंपरिक गरब के रूप म जनवाए खातिर ‘बोरे-बासी’ डे के रूप म मनाए के अरजी करे हे.
ए तो बने बात आय, काबर ते हम आधुनिकता अउ शहरी जीवन शैली के नांव म अपन कतकों परंपरा अउ खान-पान मनला भुलावत जावथ हन. अउ वोकर बदला म पौष्टिक विहीन खान-पान अउ परंपरा म बोजावत जावत हन. एकर बर जरूरी हे, हमर तइहा के परंपरा अउ वोकर महत्व ल नवा पीढ़ी ल बताए अउ वोकर संग जुड़े खातिर कोनो न कोनो उदिम होवत रहना चाही.
वइसे हमर संस्कृति म ‘बासी’ खाए के एक रिवाज तइहा बेरा ले हे. भादो के महीना म ‘तीजा’ परब म जब बेटी-माई मन अपन-अपन मइके आए रहिथें, तब उपास रहे के पहिली दिन करू भात खाये के नेवता दिए जाथे अउ तीजा के बिहान दिन बासी खाये के नेवता देथें. फेर ए नेंग ह सिरिफ तीजहारिन मन खातिर ही होथे. आज बासी के महत्व ल समझे के बाद मोला अइसे लागथे, के अभी जेन ‘बोरे-बासी’ डे मनाए के बात सरकार डहार ले होए हे, वोला ‘बासी उत्सव’ के रूप म मनाए जाना चाही. जइसे आने उत्सव के बेरा जगा-जगा म वो उत्सव ले संबंधित आयोजन करे जाथे, ठउका वइसनेच जगा-जगा बासी पार्टी या बासी खवाये के भंडारा आयोजन करे जाना चाही.
अब तो बासी खवई ह सिरिफ परंपरा या रोज के पेट भरई वाले भोजन ले आगू बढ़के सेहत अउ रुतबा के घलो प्रतीक बनत जावत हे, तभे तो फाइवस्टार होटल मन म घलो एला बड़ा शान के साथ उहाँ के मेनू म शामिल करे जाथे, अउ लोगन वतकेच शान ले एला मंगा के खाथें घलो.
वइसे तो हमर घर म आज घलो बारों महीना बासी के उपयोग होवत रहिथे. तभो मोला अपन लइकई के वो दिन के सुरता जरूर आथे, जब हमन मही डारे बिना बासी ल छुवत घलो नइ राहन. तब डोकरी दाई के सियानी राहय. गाँव घर म तो रोज दही-मही के व्यवस्था घलो हो जावय, फेर जब ले शहर के हवा म सांस लेवत हन, तब ले दही-मही संग बासी खवई ह अतरगे हे. बस सादा-सरबदा ही चलथे.
आज मोला अपन लिखे कविता के चार डांड़ के जबर सुरता आवत हे-
दिन आवत हे गरमी के, नंगत झड़क ले बासी
दही-मही के बोरे होवय, चाहे होवय तियासी
तन तो जुड़ लागबेच करही, मन घलो रही टन्नक
काम-बुता म चेत रइही, नइ लागय कभू उदासी