डॉ. चुन्नी लाल साहू, शिवा रेसिडेंसी, मठपुरैना
स्काउट के डरेस पहिर के गंगाराम जब घर ले निकलिस, त चारों मुड़ा ल देख के पहिली पक्का कर लिस, कि कोनों देखत तो नई हे ? अउ जब कोनों नई दिखिन… तहन तो …ओखर देंहे अइसे अकड़ गे.. जइसे कोनो दूबर-पातर मनखे घलव पुलिस के डरेस ल पहिरथे न … त गजब अकड़ आ जाथे। बस ..ओई हाल गंगाराम के हे। स्कॉउट ड्रेस म लेफ्ट-रैट करत छाती तान के गली के चिखला माटी म रेंगत हे… छपाक ..छपाक …।
Arai Tutari Kahani Panhi
गंगाराम चउदा बछर के लइका। सांवर रंग, दूबर- पातर देह अउ ओकर ले घलव पातर ओकर फौजी कट चूंदी।
स्काउट के डरेस म अइसे लागत हे…जइसे ओला धर पकड़ के डरेस म जबरन घुसेर देहे हे कोनो। ओकर डरेस के नाप-जोख अउ देंहे के बनावट म कोनो प्रकार के मेल नई दिखत हे। सब्बो कोती ले बोचकत हे। अउ बोचकत पेंट ल एक हांथ म धरे गंगाराम अइसे रेंगत हे …जइसे कोनो फौजी। स्कूल डहर ले आज पिकनिक बर तियार होके निकले हे बाबू साहब।
ए वर्दी के ओनहा कपड़ा मन म कोनो बात तो होथे जरूर। काबर… कि जेन पहिरथे… उहि, का ले का हो जाथे..। का जानी.. ! देशभक्ति के जोश चढ़ जाथे पहनईया ऊपर….. कि वर्दी के संग मिलईय़ा अधिकार के नशा चढ़ जाथे….!! फेर वो वर्दी पुलिस के होय चाहे फौजी, एनसीसी, स्काउट के या फेर गांव के कोटवार के….!
स्काउट ड्रेस म गंगाराम कोनो फौजी ले कम नजर नई आवत हे। फेर एकेच कमी रह दे हे……. पनही के।
का कहिबे !! ….जेकर घर म एक जुवार के बासी-भात के ठिकाना नई ए …ओकर लइका के गोड़ म पनही कहाँ ल होय !!
बिचारा ! नानपन ले जब अपन संगी-संगवारी मन के गोड़ म पनही देखे, त उहू ल साद लागे….. बिचारा अईंठ-अईंठ के रही जाय…
ददा के तो सकती नई ए पनही लान के दे के। फेर जब छठमी कक्षा म भर्ती होइस त उहू अपन नाँव लिखा लिस स्काउट म.. ए सोच के, कि ड्रेस के संग पनही घलव मिलही पहिरे बर। फेर ए कहना गलत होही, कि गंगाराम सिरीफ पनही के लोभ म स्काउट म नाँव लिखाय रिहिस।
बाल मन… स्कूल म फौजी नाटक देखके देशभक्ति के भावना म छलकत ले भरे …!
फेर इहाँ बात देशभक्ति ले जादा पनही के हे।
कथें न जब किस्मते खराब हे त का करबे ?….. ड्रेस के जइसे ही, कोनो नम्बर के पनही घलव ओकर गोड़ म फिटे नई बइठे…। कहे गे घलव हे न- “टूटहा करम के फुटहा दोना…।”
बिचारा गंगाराम ! पिकनिक म जाय बर बिना पनही के निकले हे।
पन्दरा-बीस कदम चलिस होही कि बाजू के घर तीर ले आवाज आईस – “कहाँ जात हस रे गंगाराम ?”
गांव के गुरुजी ओला सेल्यूट करत पूछिस।
गंगाराम लजा गे। …गुरुजी ल दुरिहा ल ही पैलगी करत जवाब दिस- “स्कूल कोती ले आज जंगल जात हन गुरुजी।”
गुरुजी अकबका गे .. ‘जंगल’…?
फेर समझ के हाँसत-हाँसत किहिन – “अच्छा-अच्छा … पिकनिक जात हव।
बढ़िया बेटा … जियत र रे..!”
गुरुजी असीस देत ओकर चिखला म सनाय गोड़ ल देख के पूछिन –
“फेर पनही काबर नी पहिरे हस रे ?
जंगल म तो किसिम – किसिम के कांटा-खूंटी होथे बेटा… सांप- बिछी अलग।”
“मोला बने नी लागे गुरुजी पनही पहिरे म।”
गंगाराम अपन बेबसी ल मुस्कान के चद्दर म ढांक के किहिस।
गरीब घर के लइका नानपन म सिख जाथे अपन मरजाद ल कईसे सम्हाल के रखना हे।
गुरुजी ओकर घर के हालत ल जानत हे। अउ इहु पता हे, कि गंगाराम बड़ स्वाभिमानी लइका हवे… काखरो मेर मदद नई लेवय। तभो ले अपन तरफ ले किहिस-
“गंगाराम ! मोर बेटा तोरेच उमर के हवे.. फेर ओकर गोड़ म नावा पनही लाने हंव, तेनहर चाबत हे.. त तोर गुरवाईन दाई कहत रिहिस, कि गंगाराम बने हुसियार लइका आय… ओ दिन मोर बड़ भारी काम करे रिहिस.. त ए पनही ल उहि ल दे दिहा।”
“ए ले …ले जा …पहिर के जा गंगाराम।”
गंगाराम गरीब जरूर हे… फेर आत्मसम्मान के भावना ए उमर म घलव कूट-कूट के भरे हे। भूखन मर जाही…. फेर ककरो मेर मांग के खाना, चोरी –चकारी करना कभू नई जानिस।
एकदमेच सिधवा… गउ सही। फेर काखरो मदद करे बर अघवा। ककरो बछरु ढिलागे हे त गंगाराम… काखरो भैंसा घर नई हबरे हे त गंगाराम।
कोनों के बुता रहे नही कहे बर नई सीखे हे। अउ बदला म… कुछु निही… एक जिनिस निही।
अपन घर म बासी- भात जेन भी मिल जाय उहिं म सन्तोस। सिरतो के.. अपन नाम सही निश्छल.. निर्मल.. पवित्तर गंगाराम !!
गरीब के लइका, अपन उमर ले पहिली ही सियान हो जाथे। ओकर मन म न तो नवा-नवा खाय के लोभ.. न पहिरे-ओढ़े के सौंक। मन ल मारत-मारत न जाने कब बड़का हो जाथे!
गंगाराम घलव इहि मन सही देह ल लइका अउ मन ले सियान रहय। बस, ओखर मन म एके साद रहय.. पनही के।
कईसे फौजी मन ठक… ठक.. ठक बजात रेंगथे !
लइका मन के चीं-पों मचात बस हबर गे पिकनिक के जगा म। जइसे बस हर ठाड़ होइस… त लइका मन के खुसी के ठिकाना नई रहय।
रेलम-पेला मचा गिस। जल्दी-जल्दी सब्बो ल उतरना हे। गुरुजी मन जगात हवें… फेर कोनो ओती ध्याने नई देवत हें। पहिली मैं उतरहां.. त पहिली मैं… सब इहि म लगे हें। बस ले लइका मन के उतरे म पहाड़ के पथरा जमीन ठक ले करे। सब एक ले बढ़ के एक.. बस ले जोर से कूदें अउ ठक – ठक के मजा लेत रहें। सब खुश। फेर ए मन के पनही के ठक-ठक ल सुन के गंगाराम थोरकन उदास होगे।
सब लइका जंगल के बड़का-बड़का रूक-राई, झरना अउ किसम-किसम के फल-फूल ल देख के भकचका गे हें।… जेती ल देख तेती हरियर-हरियर… झाड़ – झंखाड़ …।
चारों मुड़ा बस हरियर बंद-बुचरा अउ किसिम-किसिम के लाली, सादा, पिंवरा फुले-फूल…..। लइकामन तो कोनो दूसर दुनिया म हबर गे हें अइसे लागत हे।
हर्रा- बहेरा के गिरे फर ल बिन-सकेल के कोनो रूमाल म गठरी बनात हे त कोनो खवईया ल गारी देवत चेतात हे –
“झन खा टूरा…ए हर महुरा ए। एला खाबे न.. त मरिच जाबे। मोर बड़का दई कहे हे, कि जंगल म किसम-किसम फर फरे रहिथे.. अनचिन्हार फर ल झनिच खाबे।”
“अरे डरा झन यार..! ए हर हर्रा ए.. मोला खाँसी होथे न.. त मोर दई एला आगी म भूंज के देथे। नून के संग खाय म खांसी ओईच दे छू मंतर हो जाथे।”
गंगाराम हाँसत-हाँसत अपन संगी ल समझईस।
सब अपन-अपन संगी मन संग एती-ओती घूम के देखत हें…. खाना बनोईया अपन चूल्हा बर जगा देखत हे…. त गुरुजी मन दरी बिछाय बार बने सही सफा जगा ढूंढत हें। बीच- बीच म बड़े गुरुजी चिल्लात हें-
“कोनो ल एती-ओती नई जाना हे। जिहाँ भी जाना रही, हमर संग म ही जाना हे।”
सब लइका तो अपन संगी मन संग खेले-कूदे म मगन होगे फेर गंगाराम खाना बनईया मन के मदद बर उहिं रुक गे। फूंक-फूंक के आगी बारे ले लेके नून-तेल, मिर्चा-मसाला.. सब्बो ल अमर-अमर के देना… लकड़ी के बुझाय के पहिली ही चूल्हा म लकड़ी डारना… इहि म मंगन रहय।
बड़े गुरुजी ओखर सेवा भाव ल देख के बड़ प्रसन्न होइन। अउ अचानक जब गंगाराम के खाली गोड़ म ऊंकर नजर परिस त पूछीन –
“तोर पनही कहाँ हे गंगाराम..?”
गंगाराम के फेर उही रटे रटाये जवाब –
“मोला बने नी लागे गुरुजी पनही पहिरे म।”
बड़े गुरुजी अउ कछु कहि पातिन तभे खाना बनात चपरासी शोभाराम के चीख सुनई परिस। दार के देगची ल चूल्हा ले उतारत बिछल गिस… अउ शोभराम आगी म झँपा गे रहय।
कोनो बचाय बर आतिन एखर पहिली ही गंगाराम आव देखिस न ताव.. सिद्धा कूद गिस ओला बचाय बर। एक रत्ती घलव नई सोचिस, कि महू आगी म भूँजा जहूँ।
शोभाराम तो बाँच गे.. फेर ओला बचाय के चक्कर म गंगाराम के डेरी गोड़ जर गे।
बनेच जर गे हे गोड़ हर। अहा हा…
लाल-लाल मास हर दिखत हे! कम से कम डेढ़ दू महीना लाग जाहि घाव के भरे म।
गांव के डाक्टर आथे इलाज बर। बड़े गुरुजी अपन पईसा ले ओकर इलाज-पानी करवात हें।
दिन भर खटिया म परे रहिथे गंगाराम। ए उमर के लइका… मन खेले-कूदे बर होईच जाथे.. त एक गोड़ म ही खड़े होके टुरुक-टुरुक ऐति-ओती करके मन ल भुलवार लेथे….. फेर दाई के चार ठन गारी सुनके खटिया म बईठथे।
अइसने परे-परे दस-बारा दिन होगे हे। आज चपरासी शोभराम हाथ म एकठन डब्बा धरे स्कूल के जम्मो गुरुजी मन संग गंगाराम ल देखे बर आय हें।
“अउ… कईसे तबियत हे गंगाराम..?
बड़े गुरुजी पूछिन।
“स्कूल म सब तोर सुरता करथें… कब आही गंगाराम हर कहिके।”
अंग्रेजी वाला गुरुजी ओखर जरे गोड़ ल देखत किहिन-
“देख तो गंगाराम..! तोर बर शोभाराम का लाने हे..!”
“का हे गुरुजी एमा…?”
गंगाराम एकठन गोड़ म खड़े होए के कोसिस करत पूछिस।
बिचारा लइका..! सब्बोझन ल एक संग देखके हड़बड़ा गे रहय। कुरिया म न बइठे बर माची न खटिया… कामा बइठारे अपन गुरुमन ल..?
“ले न एदे तहीं उघार के देख।”
शोभाराम ओकर तीर म आके डब्बा ल देत किहिस।
गंगाराम लजात-लजात डब्बा ल खोलिस त भीतर एक जोड़ी नावा पनही ल देखके ओकर चेहरा पुन्नी के चंदा सही जगमगा गे…. आँखि के कोर म जोगनी मन सही आसूं के बूंदी झिलमिलागे… फेर ओ पनही ल देखके मन म आत भाव ल सोचके खुदे सकुचा गे। आँखि के चमक ओईचदे बुझागे.. डब्बा के ढकना ल ढाँप के शोभराम ल लहुटा दिस गंगाराम।
मन तो करत हे कि ले ले ओ पनही ल… फेर अपन मरजाद ल कइसे भुला जाय..? नानकुन ले दाई सीखोय हे, कि अपन मरजाद अपन हाथ म होथे.. फोकट म काखरो कुछु जिनिस नई लेना चाही।
चपरासी शोभाराम अचानक गंगाराम के जेवनी गोड़ ल धर लिस अउ किहिस- “ओ दिन तैं मोर जिनगी ल बचा लेहे गंगा! ….नई तो आज मोर हाड़ा-गोड़ा गंगा म बोहात रतिस…. तोरेच कारन मोला ए नावा जनम मिले हे।
तैं ए पनही ल पहिर लेबे न त मोरो मन ल शांति मिलहि। इंकार झन करबे।”
गंगाराम ल कुछु कहत नई बनत रहे। एक तरफ ओकर बालमन म बइठे ओखर संस्कार… मरजाद के बात..!! अउ दूसर कोती शोभाराम के गुहार..!!
“नहीं शोभा भईया..!
जेन दिन मय पनही पहिरे के लईक बन जाहूँ न… उहि दिन पहिरहूँ…
एला तुमन ले जाव।”
गंगाराम मना करत कीहिस।
शोभाराम के संगे-संग गुरुजीमन घलव समझा-बुझा के थक गिन… फेर गंगाराम ओ पनही ल लेहे बर तियारेच नई होइस।
ठीक इही बखत गंगा राम के दई कुरिया म हमात, सब गुरूजीमन ल हाथ जोड़ के पैलगी करत कीहिस –
“ले ले बेटा..!
गुरू मन के बात ल नई काटें…
ओमन के असिस समझ के ले ले।”
गंगाराम अपन दई के बात ल कइसे मान ले..? अउ काटे त कइसे काटे..?
जे बात ल कभू जानिस-सिखिस निहि.. ओला आज कइसे माने…? समझे नई आय… का करे..?
इहि तो ओ उमर होथे लइकामन के… जेमा दई-ददा अउ गुरु मन के सीखोय आदर्श के बात मन म अंतस तक ले समा जाथे…. अउ जब उहि सीख देवइया अपने सिखाय बात ल पलटथे.. त जवान होत लइका मन के मन एती-ओती हो जाथे।
गंगाराम के दाई समझ गे ओकर मन के असमंजस ल। किहिस-
“पनही ल ले ले बेटा…!
एदे ओकर पईसा ल मय देत हँव …
तोरेच बर पनही लेहे खातिर सकेल के धरे रहेंव।”
गंगाराम के मन के बात ल ओखर दाई ले बढ़के अउ कोन समझही..? पनही बर अतका दिन ले कइसे अपन मन ल मारत आत हे…ओखर ले जादा कोन जानही..?
गंगाराम मानिस लटपट…. अपन दाई… अपन गुरूमन के बात ल कइसे काटे?
ओखर बर तो गुरु गोसईंया एकेच रहंय। फेर… अब तो पईसा घलव ओकर दईच देत हे।
एति शोभाराम पईसा लेहे बर तियारेच नी होत हे… आखिर म गुरुजीमन के समझाय म उहू समझ गे, कि गंगाराम के खुसी म ही ओखरो खुसी हे।
अतका खुश गंगाराम कभू अपन जिनगी भर म नई होय रिहिस… चोला तर होगे ओखर।
शोभाराम अउ गुरुजीमन ल का कहे ?
‘गोड़ के ध्यान रखबे’ कहिके सब अपन घर चल दिन ताहन गंगाराम फेर ओ डब्बा ल उघार के देखिस… करिया रंग के नावा पनही…!!
गंगाराम जेवनी गोड़ के एकठन पनही ल पहिर के खटिया पाटी म बइठे-बइठे ठक ले कचारिस…. मजा आगे… फेर तीन चार घांव कचारिस फौजी मन सही….
ठक .. ठक …ठक ..ठांय …!!